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संस्कृत के कुछ बहुत ही अहम वाक्य और उनके अर्थ तथा उनसे जुड़ी संपूर्ण जानकारी

by Ajay Sheokand
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Sanskrit ke kuch aham vakya va unke arth

पुराने समय में संस्कृत भाषा का ही इस्तेमाल किया जाता था। पुराने जितने भी ग्रंथ लिखे गए हैं वह अधिकतर संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं। राजा महाराजा और सभी लोग भी संस्कृत का ही इस्तेमाल करते थे। हालांकि स्कूलों में आज भी पांचवी कक्षा तक तो संस्कृत पढ़ाई ही जाती है।

उसके बाद कुछ स्कूलों में संस्कृत को पढ़ाया जाता है और कुछ में नहीं। लेकिन संस्कृत एक बहुत ही अहम भाषा है जिसका ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति को होना ही चाहिए। यहां पर हम आपको संस्कृत के कुछ बहुत ही अहम वाक्य और उनके अर्थ बताने जा रहे हैं। 

संस्कृत के कुछ अहम वाक्य और उनका अर्थ 

अब तक के लेख से आपको इस बात का अंदाजा तो लग ही गया होगा कि हम आपको संस्कृत के बहुत ही जरूरी और उपयोगी वाक्य के बारे में बताने जा रहे हैं। आइए एक-एक कर इन वाक्यों के अर्थ जानने का प्रयास करते हैं। 

हंति मानो महद्यश

यह संस्कृत भाषा का एक बहुत ही ज्यादा उपयोग किए जाने वाला वाक्य है। इसके अलावा यह वाक्य आपको बहुत से जीवन भर याद रखने वाले पाठ भी सिखा देता है। जी हां यह जीवन के अनमोल सीख देने वाला ही एक वाक्य है जिसका अर्थ है कि भले ही किसी व्यक्ति के पास कितना ही यश क्यों नहीं हो उसका भी नाश निश्चित है।

जी हां इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि किसी भी व्यक्ति के पास यश की कमी नहीं होती और चाहे वह कितना ही ज्यादा यशवान क्यों न हो लेकिन अंत में उसका भी नाश हो ही जाता है। इस वाक्य से हमें यह सीख भी मिलती है कि इस जीवन में इस दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं है जो भी व्यक्ति इस दुनिया में आया हैं वह अपना नाश पहले से ही लिखवा कर आया है।

संस्कृत का यह वाक्य हमें कभी घमंड न करने का संदेश भी देता है। क्योंकि जब व्यक्ति को अपनी किसी की भी चीज का अभिमान होने लगता है तो वह अपने नाश की ओर अग्रसर हो जाता है। किसी भी चीज का जरूरत से ज्यादा अहंकार व्यक्ति को खुद ही नष्ट कर देता है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता हैं कि रावण का अंत भी उसके अहंकार के कारण ही हुआ था।

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स्वधर्मे निधनं श्रेय

परधर्मो भयावहः संस्कृत का यह वाक्य भागवत गीता से लिया गया है जिसका अर्थ यह है कि बहुत से दुखों के साथ दूसरों के धर्म में जीने से बेहतर है कि अपने धर्म में रहकर ही मृत्यु को प्राप्त किया जाए।

दूसरा धर्म अपनाकर डर और दुख में जीने से अच्छा है कि आप अपने घर में रहकर निर्भयता से जिए, खुशी में रहकर अपना जीवन व्याप्त करें। ऐसा संदेश भगवान श्री कृष्ण जी द्वारा गीता में दिया गया है।

न किंचित् शाश्वतम्

देखा जाए तो संस्कृत की इस एक छोटी सी उक्ति में जीवन का संपूर्ण रहस्य छुपा हुआ है। महाभारत के युद्ध के दौरान जब श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे थे तो उन्होंने यह वाक्य इस्तेमाल किया था। इसका अर्थ है कि जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं होता है।

यदि आप इस श्लोक का अर्थ दूसरे शब्दों में समझने जाएंगे तो आप यह भी समझ सकते हैं कि इस जीवन में इस धरती पर कुछ भी अनंत नहीं है प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक मानव का अंत आवश्यक होता है। समय के चक्र की ओर संकेत करते हुए यह श्लोक बताता है कि वक्त के साथ चीज बदलती रहती है पुरानी चीज अक्सर ढल जाया करती है और नई चीज अस्तित्व में आती है।

इसीलिए आपको अपने जीवनकाल के दौरान कभी भी एक जगह पर नहीं टिके रहना चाहिए आपको निश्चित रूप से अपना स्थान बदलते रहना चाहिए चाहे वह आपके भविष्य की नौकरी के लिए हो या फिर अन्य किसी क्रम में। 

सर्वस्यापि भवेद्धेतु

संस्कृत में लिखे गए इस वाक्य का अर्थ यह है कि इस संसार में सभी कुछ किसी न किसी कारण से होता है बिना कारण के कुछ भी नहीं होता है। इस बात को आप इस उदाहरण के माध्यम से बहुत अच्छी तरह समझ सकते हैं कि यदि माता कैकेई श्री राम को वनवास भेजने की जिद नहीं करती और श्री राम वनवास नहीं जाते तो बहुत से बड़े राक्षस जैसे की रावण, कुंभकरण और मेघनाथ आदि का अंत कभी भी नहीं हो पाता। इसीलिए जो भी होता है अच्छे के लिए होता है और समाज में हो रही प्रत्येक घटना किसी कारणवश ही होती है। 

इसके आलावा आप यहाँ पर महादेव के 12 ज्योतिर्लिंग के नाम, उनकी उपस्तिथि के बारे में विस्तार से जान सकते हैं।

गहना कर्मणो गति

संस्कृत के इस वाक्य का अर्थ बता पाना थोड़ा मुश्किल है लेकिन इस वाक्य का अर्थ हम चार तरीके से देख सकते है जिनके बारे में हम आपको बता रहे है। मनुष्य के कर्मों की गति बहुत गूढ़ होती है यानी कि वह छुपी हुई होती है। कर्म की गति को जानना आसान विषय नहीं है न ही यह छोटा विषय है कर्म की गति को जानना एक बहुत ही विस्तारित विषय है।

कर्म की गति को जानना बहुत ही ज्यादा असंभव कार्य है। आज तक कर्म की चाल को कोई भी नहीं समझ पाया है। कर्म की गति को जानना हर व्यक्ति के बस की बात नहीं होती है। कर्मों का ज्ञान होना बहुत ही ज्यादा जरूरी है लेकिन यह एक असंभव विषय जैसा है। कर्मों की गति का निर्धारण आज तक कोई व्यक्ति नहीं कर पाया है। श्री कृष्ण ने भी महाभारत में अर्जुन को कर्मों पर ही ज्ञान दिया है।

इसलिए मनुष्य को हमेशा अपने कर्म करते रहना चाहिए। कर्मों का अच्छा बुरा होना मनुष्य के हाथ में नहीं है। लेकिन कर्म करना पूरी तरह से मनुष्य के हाथ में उसे कभी भी इस डर से अपने कर्म करने से पीछे नहीं हटना चाहिए कि वह सही कम कर रहा है या गलत। क्योंकि कर्मों का निर्धारण ना कभी कोई कर पाया है और न कभी कोई कर पाएगा। 

निष्कर्ष

इस लेख में हमने आपको हमारी संस्कृति से जुड़ी भाषा संस्कृत भाषा के बारे में कुछ अहम बातें बताने का प्रयास किया है। हमने आपको संस्कृत के बहुत ही हम वाक्य बताएं हैं। उनके अलावा उनके अर्थ बताने का प्रयास भी किया है।

याद रहे सीखने की कोई उम्र नहीं होती है इसीलिए आप किसी भी उम्र में संस्कृत भाषा को सीख सकते हैं और पुराने ग्रंथों को पढ़ने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान बहुत ज्यादा आवश्यक भी है।

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